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आओ, अब आ भी जाओ,
कि इंतज़ार करता है तुम्हारा,
ये सुर्ख़ कालीन
जो बिछाया है, तन्हा खड़े गुलमोहर ने,
ये मोगरा जो देर रात तक महकेगा,
जब तलक कि आमद ना हो तुम्हारी,
सुर्ख़ ग़ुलाब की कलियाँ, मुंतज़िर हैं,
तुम्हारे साये की,
कि खिल सकें शफ़क़ के चाँदनें में,
आ भी जाओ कि राह तकता है,
स्याह रात का सितारों जड़ा दामन,
और ये जो चाँद है ना चौदहवीं का,
जोहता है बाट, कि आओ तुम और ढ़लने लगे,
दिन ब दिन, अपने ही आँगन में,
और फिर नुमायां हो, ये सितारे,
जो मद्धम थे इसकी रोशनी में,
जैसे मद्धम है इश्क़ मेरा,
तुम्हारे हुस्न की बेशुमार चाँदनी में,
जो आओगे तो कोई एहसान ना करोगे किसी पर,
ये गुलमोहर तो फिर भी बिछाएगा सुर्ख़ गुलों का कालीन,
शफ्फाक मोगरा भी महकेगा देर तलक,
सरे सहर खिलेंगे भी सुर्ख़ गुलाब,
ढलेगा माहताब भी बावक्त अपनी छत पर,
और नुमायां भी होंगे रात के दामन में सितारे,
शफ़क़ होने को है, तुम भले ना आओ,
बदस्तूर चलेगा कारोबार कायनात का,
बस वो जो शमां है, बेज़िक्र सी,
उम्मीद ए सहर, बुझी चाहती है,
जो तुम आते, तो हश्र ए हयात पुरसुकूं होता उसका,
जो आतिशे हिज़्र में जलती रही तमाम शब
और कह भी ना सकी तुम्हें,
कि तुम्हारी आमद की अस्ल मुंतज़िर तो वही थी,
जो बुझ चुकी है रात को रोशन कर,
तुम्हारे इंतज़ार में।
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