हक़-ए-कर्ब यूँ अदा किया हमनें


हक़-ए-कर्ब यूँ अदा किया हमनें,
यकलख़्त ख़ुद को भुला दिया हमनें

ये चाक जिगर ऐसे नुमायां ना हो,
गिरेबाँ अपना सिला लिया हमनें

तुम्हारी राह के अंधेरे दूर करने को,
जल चुका था जो दिल, फिर जला लिया हमनें

कर्ब-ए-दिल के मानी जो तुमने समझाए,
दिल-ए-गमगुरेज़ को फिर मना लिया हमनें ।

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