मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग


मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

~ फ़ैज़अहमद फ़ैज़

दरख़्शाँ shining, brilliant, resplendent || ग़म-ए-दहरsorrow of world || सबात stability, durability || निगूँ downward || बहीमाना dreadful, dangerous, ruthless || अतलस satin, soft shining cloth || कमख़ाब precious cloth/ brocade || जा-ब-जा everywhere || अमराज़ diseases || तन्नूरों ovens

सुब्ह-ए-आज़ादी

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त-मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाह-राहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना दबी दबी थी थकन

सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
नशात-ए-वस्ल हलाल ओ अज़ाब-ए-हिज्र हराम
जिगर की आग नज़र की उमंग दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा किधर को गई
अभी चराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले-चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई


~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हक़-ए-कर्ब यूँ अदा किया हमनें


हक़-ए-कर्ब यूँ अदा किया हमनें,
यकलख़्त ख़ुद को भुला दिया हमनें

ये चाक जिगर ऐसे नुमायां ना हो,
गिरेबाँ अपना सिला लिया हमनें

तुम्हारी राह के अंधेरे दूर करने को,
जल चुका था जो दिल, फिर जला लिया हमनें

कर्ब-ए-दिल के मानी जो तुमने समझाए,
दिल-ए-गमगुरेज़ को फिर मना लिया हमनें ।

हैं रास्ते मेरे हमसफर मेरा हमनवां कोई नहीं


हैं रास्ते मेरे हमसफर, मेरा हमनवां कोई नहीं,
ये सफर ही मंज़िल है मेरी, मेरा रास्ता कोई नहीं

ये हजारों मील हैं फ़ासले, वो जो दरमियाँ तेरे मेरे,
तू जलवागर मेरे रूबरू, मुझे वास्ता कोई नहीं

मयखाने की थी ना जुस्तजू, ना ही सोहबत-ए-मय की आरज़ू,
यूँ बेख़ुदी में हूँ झूमता, शौक़-ए-नशा कोई नहीं

ईमां जो लाकर शेख़ ने, देखा था जब बहिश्त को,
जन्नत में वो काफिर मिले, जिनका ख़ुदा कोई नहीं

'मशकूक' फिर रहे हैं वो, तलाश-ए-मुजरिम में यहाँ,
क़ातिल है महफिल सब तेरी, यहाँ पारसा कोई नहीं

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पारसा - पवित्र (pious, innocent)

ये चुप सी शाम


ये चुप सी शाम, मैं और मेरी तन्हाई है,
क्यूं परेशां मुझे करने तेरी याद चली आई है

इस कदर मैनें तुझे सोचा तो नहीं था,
कि ज़ेहन में तेरी तस्वीर उभर आई है

तेरे नाज़ुक सुर्ख लबों को सोचने भर से,
ये कैसी प्यास मेरे होठों पे मचली आई है

जो खयालों में करूँ बात तुझसे तो गुमाँ होता है,
मेरे कानों में हौले से तु कुछ बुदबुदाई है

तब से दिलो दिमाग में बजे है कोई सरगम
जब से मेरे आँगन में तुने पायल छनकाई है

मैनें तो बस नज़र भर के देखा है तुझे
फिर क्यूँ तू दुलहन सी इतना लजाई है, शर्माई है

लगता है जैसे जिस्म से आँचल तेरा लिपटता जाता है
ठंडी हवा मेरे बदन पर हौले से जो सरसराई है

वक्त गर उगता

वक्त गर उगता; चुपके से …
चुपके से बिखेर देता, कुछ लम्हे जिन्दगी की क्यारी में
भीग के बरसता मेंह,
नेँह का मेँह,
नेँह की सिंचाई और रिश्तों की गर्माहट से पकती फ़सल
लहकती, महकती, बहकती वक्त की बगिया
फ़सल कटती, सबमें बँटती,
कुछ लम्हेँ आधी ज़िन्दगी को,
कुछ से कर्ज़ चुकाता,
कुछ लम्हेँ सूद पर दे देता
और कुछ फ़िर से बिखेर देता क्यारी मेँ,
बाकी बचे, रखता अपनेँ लिये,
ढेर सारे लम्हेँ,
ढेर का ढेर,
सोने से दमकते,
मोगरे से महकते
चाँदनी सी ठण्डक,
सन्तूर से बजते, बहुत से लम्हेँ,
बेकाम से लम्हेँ
अलसाए कुछ उनींदे, वक्त के कतरे
बूँद - बूँद टपकते,
उछलते-कूदते, खेलते,
रिश्तों को मेलते,
ज़िन्दगी से खेलते
ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाते
बिखेर देता, चुपके से बीज लम्होँ के,
वक्त गर उगता  ……

जवाँ कलियों, खिले फूलों और इन बहारों में तुम हो


जवाँ कलियों खिले फूलों और इन बहारों में तुम हो,
चाँद, सूरज और आसमां के सितारों में तुम हो

यूँ तो देखे हैं हमने कई हसीं चेहरे,
फिर भी लेकिन एक उन हजारों में तुम हो

बरसे है आसमां से अब्र तो कुछ लगता है यूँ,
सावन की पहली बारिश की रिमझिम फुहारों में तुम हो

तुम्हारी आँखों की गहरी झील मे डूब जाता हूँ मैं,
उम्मीद ये कि इसके हर किनारों में तुम हो

आग से बस इसलिए खेला करता हूँ मैं,
गुमाँ होता है इन शोलों, इन शरारों में तुम हो

शर्मो झिझक, मुस्कुराहट में, और लबों की थरथराहट में,
नई दुल्हन के अनजाने, हर इशारों में तुम हो

तुम से है प्यार मुझे, लो कह दिया ये राज़ तुम्हें,
अब तो मेरे दिल के चंद राजदारों में तुम हो

इंतज़ार - 2

.॰
आओ, अब आ भी जाओ,
कि इंतज़ार करता है तुम्हारा,
ये सुर्ख़ कालीन
जो बिछाया है, तन्हा खड़े गुलमोहर ने,
ये मोगरा जो देर रात तक महकेगा,
जब तलक कि आमद ना हो तुम्हारी,
सुर्ख़ ग़ुलाब की कलियाँ, मुंतज़िर हैं,
तुम्हारे साये की,
कि खिल सकें शफ़क़ के चाँदनें में,
आ भी जाओ कि राह तकता है,
स्याह रात का सितारों जड़ा दामन,
और ये जो चाँद है ना चौदहवीं का,
जोहता है बाट, कि आओ तुम और ढ़लने लगे,
दिन ब दिन, अपने ही आँगन में,
और फिर नुमायां हो, ये सितारे, 
जो मद्धम थे इसकी रोशनी में,
जैसे मद्धम है इश्क़ मेरा,
तुम्हारे हुस्न की बेशुमार चाँदनी में,
जो आओगे तो कोई एहसान ना करोगे किसी पर,
ये गुलमोहर तो फिर भी बिछाएगा सुर्ख़ गुलों का कालीन,
शफ्फाक मोगरा भी महकेगा देर तलक,
सरे सहर खिलेंगे भी सुर्ख़ गुलाब,
ढलेगा माहताब भी बावक्त अपनी छत पर,
और नुमायां भी होंगे रात के दामन में सितारे,
शफ़क़ होने को है, तुम भले ना आओ,
बदस्तूर चलेगा कारोबार कायनात का,
बस वो जो शमां है, बेज़िक्र सी,
उम्मीद ए सहर, बुझी चाहती है,
जो तुम आते, तो हश्र ए हयात पुरसुकूं होता उसका,
जो आतिशे हिज़्र में जलती रही तमाम शब
और कह भी ना सकी तुम्हें,
कि तुम्हारी आमद की अस्ल मुंतज़िर तो वही थी,
जो बुझ चुकी है रात को रोशन कर,
तुम्हारे इंतज़ार में।
.॰

इंतज़ार - 1

.॰
गुलमोहर के झरते पत्तों की ज़र्द बारिश में,
कोई चेहरा अनजाना सा, कुछ जाना-पहचाना सा,
याद दिलाता किसी की,
छूट गया था किसी मोड़ पर,
मुझसे किसी वादे की तरह,
कि आओगे लौट कर,
लेकिन ये हो न सका,
गुज़रे वक़्त की तरह तुम फिर कभी आ ना सके,
खड़ा हूँ, उसी मोड़ पर, गुलमोहर के नीचे,
सुनहरे फूलों के तले,
झरते पत्तों की सूखी बारिश में,
आज भी ।
.॰

किरचा किरचा ज़िन्दगी ~ चंद अशआर


किरचा किरचा ज़िन्दगी
टुकड़ा टुकड़ा जी गया
खा गई कुछ वो मुझे
कुछ उसे मैं पी गया
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उनींदी आँखों में ख़्वाब जागता है कोई,
बियाबां आसमाँ में चाँद ताकता है कोई ।
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थीं चार कदम फासले मंज़िल विसाल की,
सरे राह अड़ गईं मगर बदबखतियाँ मेरी।
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स्याह आसमान पर झिलमिलाते लफ़्ज़,
इस खूबसूरत रात का मुसव्विर कौन है ।
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ना किसी से सुने गए, ना किसी से कहे गए



ना किसी से सुने गए, ना किसी से कहे गए
जाने किस रौ में हम, अपना मरसिया पढ़े गए

तीरो तलवार ना खंजर ना बंदूक ना नेज़े
सिवा इन सबों के, सारे हथियार हम सहे गए

वो जो ज़ख्मी हुए जाते हैं, नाज़ुक गुलों कि चोट से
कहो उनसे कि, चमन के सारे ख़ार हम सहे गए

उनका तो जो भी हुक्म है, तामील हो तामील हो
जज़्बात जो हमारे, हमारे ख़ून में बहे गए

लानतें, मज़म्मतें, शिकायतें, जहाँ हुईं
वहीं पे हम सुने गए, वहीं पे हम कहे गए

तामीर दिल में कब्र की, दर्द को दफ़न किया
यूँ शहरे खामुशा से, खामोश हम चले गए

इक ज़िंदगी की पुर्सीश-ए-खामोश* में चले
'मश्कूक' हम जिये कहाँ, बस मरे मरे गए

वारफ्तगी^ जो थी हयात में, वो छीन ली
वहशत हुई तारी, कि हम रहे-सहे गए

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पुर्सीश-ए-खामोश* - silent inquiry
वारफ्तगी^ - self-forgetfulness

उलट दो सब रेत घड़ियाँ



उलट दो सब रेत घड़ियाँ
कि शायद वक़्त ऐसे ही वापस चला जाए
जहाँ से आया था
कोई तो उसकी भी राह तकता होगा
मुसाफिर जो लौट कर कभी नहीं आया
इंतज़ार तो कोई उसका भी करता होगा
उलट दो कि
तुम्हें भी याद रखेगा कोई
अपनी दुआओं में 

मश्कूक



कहने को हिस्सा हूँ कायनात का मगर,
मश्कूक हूँ सेहरा की रेत के मानिन्द ।

पसंदीदा