दावत-ए-फ़ातेहा


चले आना ....
मेरे साए की मज़ार पर
ज़ेहन के .... शहर ए खामोशा में
सिसकियों की गूँज आती हो
जिस भी सिम्त ........
बस चले आना
रूह की रुख़सती के साथ ही
बेजान हुआ जिस्म
बेसाया नहीं
परछाइयाँ रहती हैं ......
मौत के बाद भी ........

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