अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था


अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था
सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था

सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था

वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था

वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी
अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था

थीं वो घर रातें भी कहानी वा'दे और फिर दिन गिनना
आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था

दस्तक देने वाले भी थे दस्तक सुनने वाले भी
था आबाद मोहल्ला सारा हर दरवाज़ा ज़िंदा था

पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था

~जौन एलिया 

मौत तू एक कविता है


मौत ! तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है, मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये, जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो, और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है,
 मिलेगी मुझको

~गुलज़ार

दिल जो है आग लगा दूँ उस को


दिल जो है आग लगा दूँ उस को
और फिर ख़ुद ही हवा दूँ उस को

जो भी है उस को गँवा बैठा है
मैं भला कैसे गँवा दूँ उस को

तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी
सोचता हूँ कि मैं ढा दूँ उस को

जिस्म में आग लगा दूँ उस के
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को

हिज्र की नज़्र तो देनी है उसे
सोचता हूँ कि भुला दूँ उस को

जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया
क्यूँ न मैं 'जौन' मिटा दूँ उस को

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